Saturday, January 28, 2012

प्रेम                                                                                                                                                                         
अब कैसे माने की हम वाकई प्रेम करते है ,ये भी एक अजीब स्थति है हम आसपास से ,सिनेमा से ,टीवी से और अपनी कल्पनाओ को संचार  माध्यमो द्वारा दिखयी जाने वाली चकाचोंध जिंदगी  से खुद को इस तरह जोड़ लेते है की हर पल हम बदले हुए होते है ..हर पल हममे बदली हुई चाह हमें अवाक करती है हमारे सामने हमारे प्रेमी /प्रेमिका की बनी हुई कल्पना को तोडती है हमारे चयन पर सवाल खड़े करती है  .....ऐसे में हम प्रेम करते हुए अपने को भीतर समझाते है समझोते की मुद्रा में लाते है जो इस प्रक्रिया में जीत जाते है वो समझदार प्रेमी बहर है  मगर वाकई वे प्रेमी है ??.......प्रेम कभी किसी समझोते का गुलाम नहीं होता ..प्रेम चयन क्र नहीं किया जा सकता ....प्रेम चयन होने के बाद प्राम्भ होने की प्रक्रिया भी नहीं ....तब प्रेम से हम कैसे आश्वस्त हो ....ऐसे प्रश्न पढने में बहुत अजीब और असहज जान पड़ते है मगर इनका सही उत्तेर ही हमें अभ्यस्त क्जेर्ता है प्रेम को जाने का और उसका अपने मन में स्वागत करने का और स्वच्छ आन्नद प्राप्त करने का .....

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