Friday, August 24, 2012

अब बात्तों का क्या है ,जब चल पड़ती है ,हर कोई हांके जाता है ,बात कभी  भला रुकी है /सावन पूरा सूखा रहा इस  बार ,लोगो ने कहा अब क्या होगा ,पीने तक का पानी नहीं मिलेगा ,पंजाब में भी पानी नहीं बरसा ,अब तो भयंकर अकाल पड़  जाएगा राजस्थान में ,कुछ लोगो ने कहा रुक जाओ भाईसाब ,ये अधिक मॉस का साल है ,भादवे का महिना पुरुषोतम काल का महिना है ,देखना इस  काल में खूब बारिशे होंगी ,और दिन भर कई तै रहे के अनुमानों के डोरे में बात्तों  की पतंग समय के आकाश में उर्ती रहती और कभी कभी तो पीच हो जाते दो पतंगों के कई देर तक देखना का मज़ा लेने के बाद जाग होती की अब इन्हे  आपस में पुनः मित्रता करने का काम भी हमें ही करना पड़ेगा ......चलता रहता है सब बातो में ...साहित्य की बाते हो राजनीती कजी बातें हो ,प्रेम रोमांस की हो या नीरस काम की बातें या पति पत्नी के बीच की बातें बेटे बीपिता के बीच की बात ....सब बातो का रस जयका निस्चोइत है करीब करीब ,और जिस का जयका निश्चित नहीं है वो है दोस्तों की ब्वातो का ...उनकी बातो के घोड़े तरह तरह के जंगल  में दोड़ते है ...हरा हरा मैदान होता है जिनमे वे घोड़े चरते है और बात के शुरू होने व् कह्तम होने तक माहोल खुशनुमा बना रहता है ...अब हर किसी को कैसे दोस्त बनाये समस्या यही से शुरू होती है ...और ये कोई समस्या है नहीं ...आप जरा विश्वास करे ..आप ये भी जाने की ये जीवित व्यक्ति है आकान्शाओं  और विकारो का भण्डार हो सकता है कभी ये बेहूदी हरक़त करे ..तब क्या ये मित्र नहीं रहेगा जो आज बहना है आज ये हमारा सबसे सुंदर अचा मित्र है केवल उसके विकार के कारन उसे ताज दे क्या ?...नहीं ये भी भाग्य की बात है तय भाग्य के साथ हमारे व्यक्तित्व की बात है की हम बातो ही बातो में मित्र को कितनी छुट दे और उस मित्र को भी चाहे की वो कितनी छुट ले .....मगर ये गणित का सवाल मित्रता में क्यों .....क्यों हम कुछ विषयों पर बात नहीं करते है और जिन पर बात नहीं करते वही बातें हमारी बातो के अन्तेर में करंट की तरह दोदुती है ..हमें बिंदास  रहना चाहिए और खुले में खड़े पेड़ की भाँती हवा से मुकाबला क्र अपने होने को प्रमाणित करना चाहिए ........इसलिए मित्र से बाबत करने से पाहिले मन ले कली ये बेलगाम के घोड़े है जिस जंगल जिस वन उपवन वाटिका में तितली की तरह ठहर जायेंगे ठहरे जायेंगे उड़ जायेंगे उड़ जायेंगे ........आओ उड़ते है दोस्त बातों में ...पकड़ो मेरा हाथ .....संकोच न करो ....आओ तितली से उड़ते है विचरते है स्वछंद .......

Saturday, January 28, 2012

प्रेम                                                                                                                                                                         
अब कैसे माने की हम वाकई प्रेम करते है ,ये भी एक अजीब स्थति है हम आसपास से ,सिनेमा से ,टीवी से और अपनी कल्पनाओ को संचार  माध्यमो द्वारा दिखयी जाने वाली चकाचोंध जिंदगी  से खुद को इस तरह जोड़ लेते है की हर पल हम बदले हुए होते है ..हर पल हममे बदली हुई चाह हमें अवाक करती है हमारे सामने हमारे प्रेमी /प्रेमिका की बनी हुई कल्पना को तोडती है हमारे चयन पर सवाल खड़े करती है  .....ऐसे में हम प्रेम करते हुए अपने को भीतर समझाते है समझोते की मुद्रा में लाते है जो इस प्रक्रिया में जीत जाते है वो समझदार प्रेमी बहर है  मगर वाकई वे प्रेमी है ??.......प्रेम कभी किसी समझोते का गुलाम नहीं होता ..प्रेम चयन क्र नहीं किया जा सकता ....प्रेम चयन होने के बाद प्राम्भ होने की प्रक्रिया भी नहीं ....तब प्रेम से हम कैसे आश्वस्त हो ....ऐसे प्रश्न पढने में बहुत अजीब और असहज जान पड़ते है मगर इनका सही उत्तेर ही हमें अभ्यस्त क्जेर्ता है प्रेम को जाने का और उसका अपने मन में स्वागत करने का और स्वच्छ आन्नद प्राप्त करने का .....