अब बात्तों का क्या है ,जब चल पड़ती है ,हर कोई हांके जाता है ,बात कभी भला रुकी है /सावन पूरा सूखा रहा इस बार ,लोगो ने कहा अब क्या होगा ,पीने तक का पानी नहीं मिलेगा ,पंजाब में भी पानी नहीं बरसा ,अब तो भयंकर अकाल पड़ जाएगा राजस्थान में ,कुछ लोगो ने कहा रुक जाओ भाईसाब ,ये अधिक मॉस का साल है ,भादवे का महिना पुरुषोतम काल का महिना है ,देखना इस काल में खूब बारिशे होंगी ,और दिन भर कई तै रहे के अनुमानों के डोरे में बात्तों की पतंग समय के आकाश में उर्ती रहती और कभी कभी तो पीच हो जाते दो पतंगों के कई देर तक देखना का मज़ा लेने के बाद जाग होती की अब इन्हे आपस में पुनः मित्रता करने का काम भी हमें ही करना पड़ेगा ......चलता रहता है सब बातो में ...साहित्य की बाते हो राजनीती कजी बातें हो ,प्रेम रोमांस की हो या नीरस काम की बातें या पति पत्नी के बीच की बातें बेटे बीपिता के बीच की बात ....सब बातो का रस जयका निस्चोइत है करीब करीब ,और जिस का जयका निश्चित नहीं है वो है दोस्तों की ब्वातो का ...उनकी बातो के घोड़े तरह तरह के जंगल में दोड़ते है ...हरा हरा मैदान होता है जिनमे वे घोड़े चरते है और बात के शुरू होने व् कह्तम होने तक माहोल खुशनुमा बना रहता है ...अब हर किसी को कैसे दोस्त बनाये समस्या यही से शुरू होती है ...और ये कोई समस्या है नहीं ...आप जरा विश्वास करे ..आप ये भी जाने की ये जीवित व्यक्ति है आकान्शाओं और विकारो का भण्डार हो सकता है कभी ये बेहूदी हरक़त करे ..तब क्या ये मित्र नहीं रहेगा जो आज बहना है आज ये हमारा सबसे सुंदर अचा मित्र है केवल उसके विकार के कारन उसे ताज दे क्या ?...नहीं ये भी भाग्य की बात है तय भाग्य के साथ हमारे व्यक्तित्व की बात है की हम बातो ही बातो में मित्र को कितनी छुट दे और उस मित्र को भी चाहे की वो कितनी छुट ले .....मगर ये गणित का सवाल मित्रता में क्यों .....क्यों हम कुछ विषयों पर बात नहीं करते है और जिन पर बात नहीं करते वही बातें हमारी बातो के अन्तेर में करंट की तरह दोदुती है ..हमें बिंदास रहना चाहिए और खुले में खड़े पेड़ की भाँती हवा से मुकाबला क्र अपने होने को प्रमाणित करना चाहिए ........इसलिए मित्र से बाबत करने से पाहिले मन ले कली ये बेलगाम के घोड़े है जिस जंगल जिस वन उपवन वाटिका में तितली की तरह ठहर जायेंगे ठहरे जायेंगे उड़ जायेंगे उड़ जायेंगे ........आओ उड़ते है दोस्त बातों में ...पकड़ो मेरा हाथ .....संकोच न करो ....आओ तितली से उड़ते है विचरते है स्वछंद .......
Friday, August 24, 2012
Saturday, January 28, 2012
प्रेम
अब कैसे माने की हम वाकई प्रेम करते है ,ये भी एक अजीब स्थति है हम आसपास से ,सिनेमा से ,टीवी से और अपनी कल्पनाओ को संचार माध्यमो द्वारा दिखयी जाने वाली चकाचोंध जिंदगी से खुद को इस तरह जोड़ लेते है की हर पल हम बदले हुए होते है ..हर पल हममे बदली हुई चाह हमें अवाक करती है हमारे सामने हमारे प्रेमी /प्रेमिका की बनी हुई कल्पना को तोडती है हमारे चयन पर सवाल खड़े करती है .....ऐसे में हम प्रेम करते हुए अपने को भीतर समझाते है समझोते की मुद्रा में लाते है जो इस प्रक्रिया में जीत जाते है वो समझदार प्रेमी बहर है मगर वाकई वे प्रेमी है ??.......प्रेम कभी किसी समझोते का गुलाम नहीं होता ..प्रेम चयन क्र नहीं किया जा सकता ....प्रेम चयन होने के बाद प्राम्भ होने की प्रक्रिया भी नहीं ....तब प्रेम से हम कैसे आश्वस्त हो ....ऐसे प्रश्न पढने में बहुत अजीब और असहज जान पड़ते है मगर इनका सही उत्तेर ही हमें अभ्यस्त क्जेर्ता है प्रेम को जाने का और उसका अपने मन में स्वागत करने का और स्वच्छ आन्नद प्राप्त करने का .....
Thursday, September 22, 2011
प्रेम :यहाँ कृत्तिम कुछ भी नहीं
रक मात्र स्थल जहा आप अहम् के साथ चले भी गए तो लौटते है ...अहम् को छोड़ कर...वापिस उसकी फिर कभी दरकार नहीं रहती है ...बहुत से लोग कहते है की प्रेमियों में झगडा होता है ....मैं ये कहता हूँ की प्रेमी जब तक झगडा करते है तब तलाक ही वे जीवित प्रेमी है ......जहा कृतिमता ढह जाती है ..ह्रदय के द्वार खुल जाते है ...सब कोई अछे लगने लगते है .......
Saturday, September 10, 2011
प्रेम यात्रा
पहाड़ पर बहुत धुंध है आज .दिखाई नहीं देता हाथ को हाथ..चले जा रहे है रूक रूक..अगर न चले तो शायद इस बीहड़ निर्जन स्थान पर कुछ पलों बाद निशान ही न रहे हमारे होने का ...बहुत उत्साह से हमने खुदने चुनी ये राह ...कामना हुई हम पहुंचे पहाड़ के शिखर ..लोगो ने नातेदारो ..रिश्तेदारों ने बहुत समझाया ..मगर हम माने नहीं....अब पूरी देह एक विरोध के स्वर में मेरे विरोध में खड़ी हो गयी है..मगर संकल्प ..मेरा इरादा अभी भी मुझे लिए जा रहा है उस शिखर की ओर...पूरा रास्ता संघर्ष से भरा ..थकाऊ मगर उत्साह की धुध उंगली थामे चलाये जा रही है..हम चलते जाते है...अब जिस शिखर पर आरूढ़ होने की कामना की थी .वह भी अश्पष्ट हो गया है..मगर अब यात्रा का वो मुकाम आ गया है..जहा से सिर्फ शिखर की ओर ही जाया जा सकता है.....यहाँ से लौटा नहीं जा सकता ..इसलिए चल रहे है..शायद शिखर पर आरूढ़ हो..या नहीं...अब बस चलना और चलना ...यही यात्रा है..यही जीवन है..यही प्रेम है यही रिश्ता है....विरोधाभासी ..मगर प्रेरणादायी ...उत्साह और ललक से संचालित ..........
Saturday, April 9, 2011
प्रेम और सम्बन्ध :४
प्रेम और सम्बन्ध :४
अब आप ही बताये की कैसे एक व्यक्ति लगातार एक ही व्यक्ति से प्रेम करता रह सके ,ऐसा करना बहुत ही अनोखा है ,दिव्या है .पवित्र है ,विवाह की पहली शर्त है ..मगर इसके लिए पूर्व त्यारियो की आवश्यकता है ..क्या इसके लिए नयी पीढ़ी तयार है ? जिस तरह एक मशीन में लगे मेल व् फिमेल पुरजो के जोड़ को आयल आदि से चिकना रख उनके घर्षण को कम
करने का उपक्रम जरुरी है ..उसी तरह से बेहतर वैवाहिक जीवन के लिए आवश्यक है की सहज भाव से हम एक दूजे को समझते हुए तनाव को कभी जीवन का अंग नहीं बन्ने दे ..एक दुसरे की अभिरुचियों का परिष्कार करना होगा ..प्रोत्साहित करना होगा .व् धीरज से स्वतंत्रता को बनाये रखते हुए अपने जीवन साथी से दोस्ताना व्यावहार करना होगा ....बहुत मुस्किल नहीं मगर सावधानी बरतने पर हम पाते है की नया नए विचार व् उनकी सुंदर अभिव्यक्ति की साझेदारी संभंध को ताजा व् हरदम नया बनाये रखती है जिस तरह रोज दिन होने पर सूरज उदय होता है रोज रात आती है मगर प्रक्रति उसे हमेशा नया रंगों से भर एस क्रम को तेरो ताजा रख कर हमें नयी सुबह नयी रात नए दिन का अहसास देती है हमें भी अपने साथी को यह जतलाना होगा की हम प्रति दिन नए व् तजा व् और सुचारू और धनात्मक व्यक्तित्व के धनी होते जा रहे है ..और यह नयापन लम्बे दाम्पत्य जीवन की नितांत आवश्यकता है ....इसका परिणाम बेहतर होगा ..प्रतिदिन बढ़ते तलाक के मामले डेरा रहे है ..यह वैवाहिक संस्था बहुत कमजोरी महसूस करने लगी है ...इस संस्था को हम इन छोटे प्रयासों से बहुत ही सरस संबंधो में बदल सकते है ........
Monday, May 3, 2010
सम्बन्ध :
सम्बन्ध :
सवतंत्रता को समझते हुए हमने सम्बन्ध को भी समझा :सम्बन्ध कब बिगड़ जाते है कब बन जाते है ----इसके बारे में पूर्वानुमान लगाने में हम असमर्थ है --ऐसा लोगों का मानना है -मगर में इसमे संसधन करना चाहूंगा की कब बन जाते है इसका अनुमान लगाना असम्भव है मगर बने हुए सम्बन्ध को बिगड़ने में आपकी खुदकी भूमिका ही निर्णायक होती है :सम्बन्ध के लिए आवस्यक होता है दो व्यक्तियों का मिलन हो अपरोक्ष रूप से या परोक्ष रूप से --जब दो व्यक्ति मिलते है ,तब उनका विचार विनियम का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है दोनों एक दुसरे को परखते है ,एक दुसरे के अन्दर किसी खूबी को पाते है उसे पसंद करते है ,और आपस में वार्ता करते बढती नजदीकियों के दौरान ही हमें ज्ञात हो जाता है की गुन्नो के साथ साथ जिनसे हम सम्बन्ध बड़ा रहे है ---उसमे कुछ अवगुण भी है /हम उस समय उन अवगुणों को स्वीकार करके ही आगे बड़ते है /मगर अफ़सोस की बाद में वे अवगुण ही संबंद को नकारने के कारणों के रूप में हम अपने बचाव में खुद अपने को भी संतुश्त्ब करने के लिए रुख देते है -----ये कैसी विडंबना है ?
संबंद शास्त्र बहुत जटिल तो नहीं है :मगर आस्था की आव्सयाकता यहाँ है ;श्रधा,विस्वास ,प्रेम ,स्नेह,इस मार्ग के छायादार वृक्ष है ..जिनकी छाया के बिना संबंद को हासिल नहीं किया जा सकता है ...अपेक्षा ,छल ,कपट,धोखा ,व् लाभ हानि ,व्यापार इस राह के वे कांटे है ...जिनसे बचने के लिए जिस तरह हम पैरों पर जूते पहिनना आवस्यक समजते है :हमें प्रतिदिन स्वाध्याय व् खुद के अवलोकन ,स्व को झाचने की आव्सयाक्ता है ....
आने वाले दिनों में हम संबंद के मार्ग में शीतल छाया देने वाले वर्क्षो व् मार्ग में आने वाले कांटो के बारे चर्चा करने का प्रयास करेंगे //
सवतंत्रता को समझते हुए हमने सम्बन्ध को भी समझा :सम्बन्ध कब बिगड़ जाते है कब बन जाते है ----इसके बारे में पूर्वानुमान लगाने में हम असमर्थ है --ऐसा लोगों का मानना है -मगर में इसमे संसधन करना चाहूंगा की कब बन जाते है इसका अनुमान लगाना असम्भव है मगर बने हुए सम्बन्ध को बिगड़ने में आपकी खुदकी भूमिका ही निर्णायक होती है :सम्बन्ध के लिए आवस्यक होता है दो व्यक्तियों का मिलन हो अपरोक्ष रूप से या परोक्ष रूप से --जब दो व्यक्ति मिलते है ,तब उनका विचार विनियम का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है दोनों एक दुसरे को परखते है ,एक दुसरे के अन्दर किसी खूबी को पाते है उसे पसंद करते है ,और आपस में वार्ता करते बढती नजदीकियों के दौरान ही हमें ज्ञात हो जाता है की गुन्नो के साथ साथ जिनसे हम सम्बन्ध बड़ा रहे है ---उसमे कुछ अवगुण भी है /हम उस समय उन अवगुणों को स्वीकार करके ही आगे बड़ते है /मगर अफ़सोस की बाद में वे अवगुण ही संबंद को नकारने के कारणों के रूप में हम अपने बचाव में खुद अपने को भी संतुश्त्ब करने के लिए रुख देते है -----ये कैसी विडंबना है ?
संबंद शास्त्र बहुत जटिल तो नहीं है :मगर आस्था की आव्सयाकता यहाँ है ;श्रधा,विस्वास ,प्रेम ,स्नेह,इस मार्ग के छायादार वृक्ष है ..जिनकी छाया के बिना संबंद को हासिल नहीं किया जा सकता है ...अपेक्षा ,छल ,कपट,धोखा ,व् लाभ हानि ,व्यापार इस राह के वे कांटे है ...जिनसे बचने के लिए जिस तरह हम पैरों पर जूते पहिनना आवस्यक समजते है :हमें प्रतिदिन स्वाध्याय व् खुद के अवलोकन ,स्व को झाचने की आव्सयाक्ता है ....
आने वाले दिनों में हम संबंद के मार्ग में शीतल छाया देने वाले वर्क्षो व् मार्ग में आने वाले कांटो के बारे चर्चा करने का प्रयास करेंगे //
Friday, April 30, 2010
प्रेम:३
प्रेम के विषय में पिछली बार बात करते हुए सवतंत्रता की परिभाषा को जानने व् सवतंत्रता क्या होती है इस हेतु हमने बात की थी ...आज हम जानना चाहेंगे की सवतंत्र होने के अर्थ क्या है ......स्व वतंत्रता का अर्थ है--- किसी दूसरे की उपस्थति को पहिले जानना व् उसकी स्वतंत्रता की सुरक्षा करना ...अगर स्वंतंत्र होने के लिए किसी समाज की किसी दूसरे की उपस्थति की आवश्यकता महसूस नहीं की जाती तो फिर हम क्यों किसी समाज की कल्पना करते है ..अतः यह स्वयम सिद्ध तथ्य है की --- कोई दूसरा है जिसके सापेक्ष आप स्वतन्त्र है ..इसके माय्न्मे साफ़ है आप जब तक किसी अन्य की उपस्थति को स्वीकार नहीं करते --उसके लिए कोई जगह नहीं छोड़ते तब तक आप स्वतन्त्र नहीं है ...येही हमने अनुसन्धान किया प्रेम के लिए भी- कि जब तक आप किसी कि उपस्थति व् उसको उचित मान नहीं देते आप प्रेम नहीं कर सकते ...अतः यह एक बात तो अपने आप ही आ जाती है कि आप प्रेम कर रहे है इसलिए कि आप स्वतन्त्र होना चाहते है ...आप स्वतन्त्र करना चाह रहे है ........यही परेशानी की बात है कि --- जितना प्रेम-- आप पर अत्याचार करता है उतना कोई भी नहीं ..प्रेमी हर समय येही चाहता है कि उसका प्रेम वेही करे जो वो चाहे ---अपने प्रेम में सारी दुनिया को सारे सिधान्तों को अपने नजरिये से देखना चाहता है ...जो कि प्रेम की परिभाषा के बिलकुल विपरीत है ....अपने प्रेम में पड़े व्यक्ति को अपने सिधांत, अपने धर्म, अपनी विचारधारा के अनुकूल चलते हुए देखने कि उसकी इच्छा प्रेम के सिधांत के तो विपरीत है ही --- यह स्वतंत्रता के मोलिक अधिकारों का हनन भी है .....जरा देखिएगा कितना छोटी बात मगर कितनी दुरूह हो जाती है प्रेम के मार्ग में हम कितने हिंसक होकर मांग कर बैठते है अपने प्रेम से .....टालियेगा नहीं
कुछ कहिएगा .....
प्रेम के विषय में पिछली बार बात करते हुए सवतंत्रता की परिभाषा को जानने व् सवतंत्रता क्या होती है इस हेतु हमने बात की थी ...आज हम जानना चाहेंगे की सवतंत्र होने के अर्थ क्या है ......स्व वतंत्रता का अर्थ है--- किसी दूसरे की उपस्थति को पहिले जानना व् उसकी स्वतंत्रता की सुरक्षा करना ...अगर स्वंतंत्र होने के लिए किसी समाज की किसी दूसरे की उपस्थति की आवश्यकता महसूस नहीं की जाती तो फिर हम क्यों किसी समाज की कल्पना करते है ..अतः यह स्वयम सिद्ध तथ्य है की --- कोई दूसरा है जिसके सापेक्ष आप स्वतन्त्र है ..इसके माय्न्मे साफ़ है आप जब तक किसी अन्य की उपस्थति को स्वीकार नहीं करते --उसके लिए कोई जगह नहीं छोड़ते तब तक आप स्वतन्त्र नहीं है ...येही हमने अनुसन्धान किया प्रेम के लिए भी- कि जब तक आप किसी कि उपस्थति व् उसको उचित मान नहीं देते आप प्रेम नहीं कर सकते ...अतः यह एक बात तो अपने आप ही आ जाती है कि आप प्रेम कर रहे है इसलिए कि आप स्वतन्त्र होना चाहते है ...आप स्वतन्त्र करना चाह रहे है ........यही परेशानी की बात है कि --- जितना प्रेम-- आप पर अत्याचार करता है उतना कोई भी नहीं ..प्रेमी हर समय येही चाहता है कि उसका प्रेम वेही करे जो वो चाहे ---अपने प्रेम में सारी दुनिया को सारे सिधान्तों को अपने नजरिये से देखना चाहता है ...जो कि प्रेम की परिभाषा के बिलकुल विपरीत है ....अपने प्रेम में पड़े व्यक्ति को अपने सिधांत, अपने धर्म, अपनी विचारधारा के अनुकूल चलते हुए देखने कि उसकी इच्छा प्रेम के सिधांत के तो विपरीत है ही --- यह स्वतंत्रता के मोलिक अधिकारों का हनन भी है .....जरा देखिएगा कितना छोटी बात मगर कितनी दुरूह हो जाती है प्रेम के मार्ग में हम कितने हिंसक होकर मांग कर बैठते है अपने प्रेम से .....टालियेगा नहीं
कुछ कहिएगा .....
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