Friday, April 30, 2010

प्रेम:३ 
 प्रेम के विषय में पिछली बार बात करते हुए सवतंत्रता की परिभाषा को जानने व् सवतंत्रता क्या होती है इस हेतु हमने बात की थी ...आज हम जानना चाहेंगे की सवतंत्र होने के अर्थ क्या है ......स्व वतंत्रता का अर्थ है--- किसी दूसरे की उपस्थति को पहिले जानना व् उसकी स्वतंत्रता की सुरक्षा करना ...अगर स्वंतंत्र होने के लिए किसी समाज की किसी दूसरे की उपस्थति की आवश्यकता महसूस नहीं की जाती तो फिर हम क्यों किसी समाज की कल्पना करते है ..अतः यह स्वयम सिद्ध  तथ्य है की --- कोई दूसरा है जिसके सापेक्ष आप स्वतन्त्र है ..इसके माय्न्मे साफ़ है आप जब तक किसी अन्य की उपस्थति को स्वीकार नहीं करते --उसके लिए कोई जगह नहीं छोड़ते तब तक आप स्वतन्त्र नहीं है ...येही हमने अनुसन्धान किया प्रेम  के लिए भी- कि जब तक आप किसी कि उपस्थति व् उसको उचित मान नहीं देते आप प्रेम नहीं कर सकते ...अतः यह एक बात तो  अपने आप ही आ जाती है कि आप प्रेम कर रहे है इसलिए कि आप स्वतन्त्र होना चाहते है ...आप स्वतन्त्र करना चाह रहे है ........यही  परेशानी की बात है कि --- जितना प्रेम-- आप पर अत्याचार करता है उतना कोई भी नहीं ..प्रेमी हर समय येही चाहता है कि उसका प्रेम वेही करे जो वो चाहे ---अपने प्रेम में सारी दुनिया को सारे सिधान्तों को अपने नजरिये से देखना चाहता है ...जो कि प्रेम की परिभाषा के बिलकुल विपरीत है ....अपने प्रेम में पड़े व्यक्ति को अपने सिधांत, अपने धर्म, अपनी विचारधारा के अनुकूल चलते हुए देखने कि उसकी इच्छा  प्रेम के सिधांत के तो विपरीत है ही --- यह स्वतंत्रता  के मोलिक अधिकारों का हनन भी है .....जरा देखिएगा कितना छोटी  बात मगर कितनी दुरूह हो जाती है प्रेम के मार्ग में हम कितने हिंसक होकर मांग कर बैठते है अपने प्रेम से .....टालियेगा नहीं
   कुछ कहिएगा .....

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